मंगलवार, 30 अगस्त 2011

एक नयी कहानी.


जीवन में , हर दिन

बनती है एक नयी कहानी.


कभी मिलती खुशी हमें,

कभी बहता आंखों से पानी,

कभी मिलते लोग पहचाने,

कभी छिपाते पहचान पुरानी ,

कभी कोई देता दिलासा ,

कभी कोई करता बेईमानी,


हर दिन नये तमाशे होते ,

कोई बन जाता राजा, कोई रानी ,

किसी को मिलता मनचाहा वरदान ,

कोई छुपाता गम की निशानी , ,

कोई अपने नसीब को कोसता,

कोई मानता ईश्वर की मेहरबानी,


जीवन में , हर दिन,

बनती है एक नयी कहानी.

बुधवार, 8 सितंबर 2010

सपने.....

सपने , हर कोई देखता है,
मैं भी देखता हूं.
किसी के सपने ,
सच और पूरे होते हैं
तो किसी के बिखर ,
तितर - बितर हो जाते हैं.
जिनके सपने पूरे होते हैं,
उनके चेहरों पर हमेशा ,
मुस्कुराहट रहती है,
जिनके पूरे नहीं होते ,
उनके चेहरों पर हमेशा
झूठी मुस्कान होती है,
वे भविष्य में ,
सपनों की नगरी के ,
दरवाजे नहीं खोलना चाहते.
जो मिला , जितना मिला
उसे ही अपनी जीवन - पोटली में
ढोते रहना नियति मान लेते हैं.
पर, इनमें से कुछ लोगों को ,
मिल जाती हैं, जीवन में वो खुशियां

जिसकी कभी कल्पना भी,
नहीं की जा सकती थी.
मैं सोचता हूं ,
बाकी बचे लोगों का क्या दोष ,
जो
सपनाशब्द से डरते हैं ,
नम आंखे लिए जीवन गुजारा करते हैं




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रविवार, 16 मई 2010

अल्लाह जाने क्या होगा आगे.....



मुझे क्रिकेट से बडा लगाव है , वह भी बचपन से. जब भी भारत का कोई वन - डे इंटरनेशनल मैच होता , मैं बहाना बनाकर स्कूल नहीं जाता था. दिन भर १०० ओवर का मैच देखता था.भारत जीते या हारे बस आनंद आता था. कपिल देव, वेंग्सर्कर, अज़हर,सचिन को देखकर मन हर्षित हो उठता था.

आज भी क्रिकेट में मेरी दिलचस्पी है. वन – डे मैच तो कम हो गये,२०-२० का जमाना आ गया. वैसे भी लोगों के पास समय ही कहां है. उसे देखते हुए क्रिकेट के रूप को भी छोटा किया गया. इसमें चार और छ: रनों की बरसात होती है. बल्ले फ़टाफ़ट चलते है.पुराने खिलाडियों का स्थान नये खिलाडियों ने ले लिया है. आज युवराज , क्रिकेट धोनी ,युसुफ़, सहवाग हमारे फ़ेवरेट है. जब ये शाट लगाते हैं तो मन झुम उठता है.

लेकिन चल रहे २०-२० विश्व कप क्रिकेट से हमारी टीम की विदाई की खबर सुनकर दुख हुआ. एक-दों दिन समाचार पत्र और न्यूज चैनलों में हार के कारणों का गंभीरता से विश्लेशण किया गया. मैच प्रैक्टिस की बजाय सी-बीच पर खेलते दिखाया गया.बताया गया कि ऐसा किसी भी मैच में नहीं लगा कि हमारी टीम दूसरी टीम के ऊपर हावी हो सकी हो.

अब मन नहीं कर रहा कि कम से कम ३-४ घंटे भी बिस्तर पर बैठकर चिप्स खाते-खाते क्रिकेट मैच देखूं.विकल्प के रूप में फ़ुटबाल है. विश्व कप स्पर्धा शुरु होने वाली है. वैसे भी wwf देखने का शौकिन हूं.उसमें भी खली साहब के कभी कभी दर्शन होते हैं.कल ही एक पोस्टर - एड देखा , द ग्रेट खली साहब राजपाल यादव के साथ खुश्ती लडने के मुड में नज़र आ रहे थे.

अल्लाह जाने क्या होगा आगे.......................


रविवार, 28 फ़रवरी 2010

मांग का सिन्दुर

मांग का सिन्दुर

रहने को जगह ना मिला तो बेचारी मोनी मौसी ने स्टेशन के एक कोने में अपनी छोटी सी चारपाई डाल ली , और पिछ्ले कुछ सालों से वही उसका आशियां था . करती भी क्या, क्या किसी गरीब का अपना घर होता है ?

मोनी मौसी इस घर में अपनी बेटी सुशीला के साथ रहती थी . पति दूसरी शादी करके नौ साल पहले ही इन्हें छोड चुका था . स्टेशन से आने – जाने वाले लोग इन्हें कुछ पैसा दे देते थे , इससे इन्हें तीन वक्त का खाना नसीब हो ही जाता था.

एक दिन एक लोकल ट्रेन आकर स्टेशन पर रुकी . सुशीला मोनी मौसी की गोद में सर रखकर लेटी थी. उसने देखा कि खिडकी के पास एक खुबसूरत लडकी बैठी है. उसके हाथों में सोने के कंगन हैं . कानों में सोने की बनी बालियां हैं . लडकी ने बनारसी साडी पहन रखी है . उसके माथे और मांग पर लगा लाल सिन्दुर उसकी सुन्दरता और आभा बढा रहे थे. जब तक ट्रेन छुट न गई सुशीला उस लडकी को निहारती रही.

सुशीला के मन में कई भाव और विचार गोते लगाने लगे . उसने मां का हाथ पकडा और सकुचाते हुए पूछा -मां मैं दुल्हन कब बनूंगी. मां, क्या मैं भी दुल्हन बनकर ऐसी ही दिखूंगी . तुमने देखा उसकी मांग में सिन्दुर लगा था ........ पैसा वाली थी, कितनी अच्छी लग रही थी न.... . मोनी मौसी ने कोई जवाब नहीं दिया. एक हाथ से सुशीला का सर सहलाया और दूसरे हाथ से मिले हुए पैसे गिनने लगी .

होली की धा और शुभकामनायें

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

भीड़ में एक चेहरा टकराया



बहुत दिनों के बाद , एक चेहरा,
स्मृति के किसी कोने से निकलकर,
दिल के आसमां पर छाया,
जब भीड़ में एक चेहरा टकराया ।

देखकर उसका चेहरा वर्षों बाद….
आंखे हुई नम, खिल उठा रोम-रोम,
ओठों ने भी गीत हर्ष का गाया,
जब भीड़ में एक चेहरा टकराया ।

कदम बिन रुके आगे बढ़ चले ,
सोचने का वक्‍त न था,क्या है रिश्ता ?
पर, उसने भी तो पीछे देख, मुस्कुराया ,
जब भीड़ में एक चेहरा टकराया ।




२६ जनवरी २०१०
गणतंत्र दिवस क
शुभ कामनाएं

शनिवार, 9 जनवरी 2010

“ आसमान के तारे ”


समाचार पत्र में एड आया था- एक नई फिल्‍म के लिए चार कलाकारों की तलाश।” आडिशन मुंबई में था । राकेश , संजीव , सुजेन और सलमा अपने - अपने घर में एक मैसेज छोडकर निकल पड़े । चारों जानते थे कि अगर वे अपने माता पिता को इस बारे में बताएंगे तो वे उन्‍हें मुंबई जाने और फिल्‍मों में काम करने की अनुमति नहीं देंगे ।
राकेश , संजीव , सुजेन और सलमा चारों अच्‍छे दोस्‍त थे । एक ही कॉलेज से पढ़ाई की थी चारों ने । चारों ही मझे हुए कलाकार थे । नेशनल ड्रामा कंपिटिशन के दौरान इनमें दोस्ती के बीज पनपे थे । राकेश सुजेन को और संजीव सलमा को अपना लाइफ पार्टनर मान चुके थे लेकिन निर्णय लिया था कि अपने को प्रमाणित करने के बाद ही शादी करेंगे।
चारों मुंबई पहुंचे, आडिशन हुआ । चारों ही उस फिल्म के लिए चुन लिए गए । फिल्‍म “आसमान के तारे ” रिलीज हुई , । एक हफ्ते तक चारों समाचार पत्र के पेज 3 में छाए रहे । मगर फिल्म पिट गई । लो बजट की फिल्म करोडों में बन नही फिल्‍मों के आगे टिक न सकी ।
कुछ पैसा चारों कलाकारों के हाथ आ गया था । मुंबई के पास एक फ्लैट खरीदकर चारों उसी में रहने लगे । घरवालों ने उन्‍हें घर में प्रवेश नहीं करने दिया । मुहल्‍ले वालों ने भी साथ नहीं दिया । फिल्म पिटने के बाद मीडियावालों ने उनसे मुंह मोड़ लिया । इसी तरह कुछ माह बीत गए ।
एक शाम, नेशनल फिल्‍म अवार्ड की घोषणा हुई । फिल्‍म “आसमान के तारे ” को वर्ष का सर्वश्रेष्‍ठ फिल्‍म घोषित किया गया । फिर क्या था । मीडियावाले - पत्रकार , रिपोर्टर , परिवार के सदस्य , नये फैन सभी उन चारों को ढूंढते हुए उनके आवास पर पहुंचे । घर अंदर से बंद था । दरवान ने उन्हें पिछले तीन दिनों से घर से निकलते नहीं देखा था । बाहर , आसमान में चार तारे टिमटिमाते हुए नजर आ रहे थे ।

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रविवार, 3 जनवरी 2010

एक फूल

कार्यालय में नए अधिकारी कार्यभार ग्रहण कर चुके थे । पहली तारीख थी और वह भी नव वर्ष का अवसर । सारे कर्मचारी एक - एक करके उन्‍हें शुभकामनाएं देने पहुंच रहे थे । कोई गुलदस्ता लेकर , कोई कार्ड लेकर तो कोई खाली हाथ साहब के कमरे में घुसता और थोडी देर बाद मुस्कुराता हुआ चेहरा लेकर बाहर आ रहा था ।

सभी बाहर आकर यह बताने में व्यस्त थे कि साहब ने मुझे बैठने के लिए कहा , चाय के लिए पूछा और खड़े होकर हाथ भी मिलाया । अब केवल श्यामलाल जी और रमेश बचे थे ।

श्यामलाल जी मौका देखते ही अंदर पहुंचे । साहब को गुलदस्ता भेंट किया । साहब ने खड़े होकर उनसे हाथ मिलाया । चाय की पेशकश को श्यामलाल जी ठुकरा न पाए । बाहर आकर उन्होंने यह किस्सा हर्ष के साथ सबको बताया भी ।

रमेश को नौकरी पर लगे दो साल हो चुके थे । वह कार्यालय का एकमात्र चपरासी था । इसलिए उसे गप मारने का कम समय मिलता था। उसे अपने काम में व्यस्त रहना अच्छा लगता था । शाम हो चुकी थी । साहब घर लौटने की तैयारी कर रहे थे । सभी कर्मचारी कतार में हाथ जोड़े खड़े थे । साहब ने बाहर निकलते ही रमेश को देखा । वह भी हाथ जोड़े खड़ा था । साहब ने उसे विश किया , उससे स्वयं हाथ मिलाया। रमेश की आंखें नम हो गई । साहब के हाथ में एक फूल था। वे उसे रमेश की शर्ट में लगाते हुए लिफ्ट की ओर चल पड़े ।

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आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं ।

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