मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

निर्णय

प्रसाद सरकारी कार्यालय में कार्यरत थे । कार्यालय में उनका बडा मान सम्‍मान था । उनके पिताजी एक जमाने में शहर के धनी लोगों में गिने जाते थे । प्रसाद भी कुछ साल पहले तक ऐशोआराम की जिंदगी बिता रहे थे । पर जैसे सूर्य को भी ग्रहण लगता है, उसी प्रकार प्रसाद की खुशियों की ग्रहण लग गया ।
अपने दो बच्चों और पत्नी के साथ अच्छी तरह जिंदगी बिता रहे थे प्रसाद । लेकिन कार्यालय में बुरी संगति का शिकार हुए । एक पियकक्ड दोस्त की संगति में उन्होंने भी पीना शुरू कर दिया । घर देर रात पहुंचना, पत्नी से झगडा करना , बच्चों को बात -बात पर पिटना साथ ही कार्यालय में काम न करना उनकी आदत बन चुकी थी । महीने भर की कमाई वे बार में ही लुटा देते थे ।
कार्यालय में उनके अधिकारी देव बाबू उनसे रोजाना चाय मंगाया करते थे । वे प्रतिदिन दस रूपये का नोट निकालकर देते और दिन में दो बार चाय मंगवाकर पीते थे और सहकर्मियों को भी पिलाते थे । कभी शेष बचे पैसों के बारे में नहीं पूछा । उनके सहकर्मी रमेश बाबू , सोहन बाबू , दास बाबू ने उन्हें अनेक बार समझाया कि वे पियक्कड़ प्रसाद पर भरोसा न करें । देव बाबू हंसते पर कुछ न कहते ।
एक सप्ताह हो गए प्रसाद कार्यालय नहीं आ रहे थे । तरह - तरह की बातें शुरू हो गई थी । स्थिति यह हो गई कि देव बाबू के सामने प्रसाद का सस्पेंशन लेटर हस्ताक्षर के लिए पडा था । दोपहर दो बजे अचानक प्रसाद पधारे । उन्हें देखकर सभी दंग रह गए ।
प्रसाद सीधे देव बाबू के पास पहुंचे । नमस्कार किया, चाय का फ्लास्क उठाया और कहा साहब चाय ले आता हूं । देव बाबू ने बिना कुछ कहे जेब से दस का नोट निकाला और प्रसाद को देने के लिए हाथ बढ़ाया । प्रसाद ने बस हाथ जोड दिया, नोट लिया नहीं। आगे बोले – “साहब आज मैं चाय पिलाता हूं । ”
उन्होंने अलमारी खोली , उसमें से एक छोटा बक्सा निकाला । उसमें से कुछ सिक्के निकालते हुए बोले – “ साहब आप मुझे चाय के लिए हमेशा दस रूपये का नोट देते रहे । हमेशा आठ रूपये की चाय में लाता था । बचे पैसे मैं अपने पास रख लेता था । आठ सौ रूपये जमा हो गए हैं । मैंने सोचा था कि जब हजार हो जाएंगे तो पूरे सेक्शन की पार्टी होगी । पिछले एक सप्ताह से साहब मेरा लडका बहुत बीमार है । उसकी दवाईयों के लिए मुझे पांच सौ रूपयों की आवश्‍यकता है । अगर आप अनुमति देंगे ........... और हां मैं यह पैसे अगले माह लौटा दूंगा । साहब मैंने वादा किया है पत्नी से ....... मैंने पीना छोड दिया हे । मैं अपने परिवार को खोना नहीं चाहता । ”
देव बाबू ने बस स्वीकृति देते हुए अपना सर हिलाया और सस्पेंशन लेटर की तरफ देखने लगे। सेक्शन के लोग एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। प्रसाद चाय लाने के लिए कैंटीन चल दिए ।

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

रिश्ते कैसे - कैसे !



ट्रेन में दो व्यक्ति , जिनकी उम्र साठ के आसपास होगी आपस में काफी देर से बतिया रहे थे । बातों का सिलसिला एक ड्रा होने वाले टेस्ट मैच की तरह था जो समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था । गंजे व्यक्ति ने कहा – “ मैंने सन् 72 में बी. ए. पास किया था । उस समय मैंने अंग्रेजी विषय में कॉलेज में सबसे ज्यादा अंक प्राप्त किया था । क्या ग्रामर था , मेरे पिताजी ने दो ट्यूटर रखे थे । उन्होंने मुझे बहुत अच्छे तरीके से गाइड किया । आज मैं एक आँफिसर हूं । पर आज के पाठ्यक्रम में कितना बदलाव आ चुका है ।” बगल में बैठे व्यक्ति ने कहा –“आप सही कह रहे हैं । आज शिक्षा के क्षेत्र में काफी बदलाव आ गया है , आज हमारे जमाने जैसे शिक्षक रहे नहीं । अच्छे - बुरे का भेद बताने वाला कोई रहा नहीं । मैंने भी सन् 73 में बी. एस.सी.पास किया था । मेरे पिताजी ने गणित में बहुत मदद की । चूंकि फर्स्ट क्लास अंक प्राप्त हुए थे इसलिए नौकरी भी जल्दी मिल गई । पर आज तो फर्स्ट क्लास आने पर ........... । ” गेम जारी था । लगा दोनों एक-दूसरे को लंबे अरसे से जानते हैं ।

अचानक एक बादामवाला उधर से गुजरा । गंजे व्यक्ति का ध्‍यान उस पर गया । उसने एक पैकेट बादाम खरीदा ,जिसकी कीमत मात्र दो रुपए थी । बातों का सिलसिला ऐसे समाप्त हुआ जैसे बीच में ही मैच रोकना पड़ा हो । वह मुसकुराया, दाएं एवं बाएं देखा और बादाम खाने में लीन हो गया । दूसरा व्यक्ति अब बाहर के दृश्‍य देखने में व्यस्त था ।

थोडी देर बाद वहां से एक भिखारी भीख मांगते हुए गुजरा। किसी ने उसकी और ध्यान नहीं दिया । गंजे व्यक्ति के पास बैठे व्यक्ति ने दो रूपए निकाले और उसको दिया । गंजा व्यक्ति बोला – “आजकल का ग्रामर जो कॉलेजों में .........।"
*********

रविवार, 13 दिसंबर 2009

आज़ादी

स्टेशन पर सुबह से ही भीड़ लगी थी । चारों ओर चहल-पहल थी । स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा था । छोटी पार्टी के कार्यकर्ता तथा क्लबवाले आयोजन में व्यस्त थे । चन्दु काका अपनी छोटी सी दुकान पर पुरियां छानने में व्यस्त थे । उसी स्टेशन के किनारे झोपडी में रहने वाला बाबू भिखारी का लडका चुन्नू रोज की तरह डस्टबीन से पत्ते निकालकर उसमें बची सब्जी निकालने में व्यस्त था । राहगीर जो नियमित रूप से चन्दु काका की दुकान की बनी पुरियां खाते थे , आज भी मजे के साथ पुरियां खा रहे थे ।

माईक से हैलो टेस्टिंग.. वन..टू..थ्री......की आवाजें आनी शुरू हो गई थी । तभी कुछ लोग हाथ में झंड़ा लिए स्टेशन परिसर में आए औऱ वहां चल रहे आयोजन को बंद कराने लगे । किसी ने बीच से एक-दो पत्थर फेंका । फिर क्या था, भगदड़ मच गई । स्त्री-पुरूष सभी भागने लगे । पत्थर की वर्षा होने लगी । चन्दु काका दुकान छोड़ भागे । चुन्नू भी कुछ पत्ते समेटकर अपने घर भागा ।

करीब एक घंटे बाद चुन्नू घर से निकला । देखकर खुश हुआ कि माहौल शांत और खुशनुमा हो चुका है । माईक के सामने खड़े सफेद कुर्ता-पायजामा पहने साहब भाषण दे रहे हैं । भाषण के बाद लड्डू बांटा जाना था , इसलिए भीड़ इकठ्ठी हो चुकी थी । चन्दु काका का दुकान टूट चुका था । पुरियां और सब्जी बिखरी पड़ी थी , चूल्हा अब चूल्हा नहीं रहा । चुन्नू ने लड्डू लिया और माईक से आती आवाज – ‘ अपनी आज़ादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं.......... ’ गुनगुनाता हुआ घर की ओर चल दिया ।