रविवार, 28 फ़रवरी 2010

मांग का सिन्दुर

मांग का सिन्दुर

रहने को जगह ना मिला तो बेचारी मोनी मौसी ने स्टेशन के एक कोने में अपनी छोटी सी चारपाई डाल ली , और पिछ्ले कुछ सालों से वही उसका आशियां था . करती भी क्या, क्या किसी गरीब का अपना घर होता है ?

मोनी मौसी इस घर में अपनी बेटी सुशीला के साथ रहती थी . पति दूसरी शादी करके नौ साल पहले ही इन्हें छोड चुका था . स्टेशन से आने – जाने वाले लोग इन्हें कुछ पैसा दे देते थे , इससे इन्हें तीन वक्त का खाना नसीब हो ही जाता था.

एक दिन एक लोकल ट्रेन आकर स्टेशन पर रुकी . सुशीला मोनी मौसी की गोद में सर रखकर लेटी थी. उसने देखा कि खिडकी के पास एक खुबसूरत लडकी बैठी है. उसके हाथों में सोने के कंगन हैं . कानों में सोने की बनी बालियां हैं . लडकी ने बनारसी साडी पहन रखी है . उसके माथे और मांग पर लगा लाल सिन्दुर उसकी सुन्दरता और आभा बढा रहे थे. जब तक ट्रेन छुट न गई सुशीला उस लडकी को निहारती रही.

सुशीला के मन में कई भाव और विचार गोते लगाने लगे . उसने मां का हाथ पकडा और सकुचाते हुए पूछा -मां मैं दुल्हन कब बनूंगी. मां, क्या मैं भी दुल्हन बनकर ऐसी ही दिखूंगी . तुमने देखा उसकी मांग में सिन्दुर लगा था ........ पैसा वाली थी, कितनी अच्छी लग रही थी न.... . मोनी मौसी ने कोई जवाब नहीं दिया. एक हाथ से सुशीला का सर सहलाया और दूसरे हाथ से मिले हुए पैसे गिनने लगी .

होली की धा और शुभकामनायें